कानपुर का बिकरु गाँव भारत सरकार के दस्तावेजों में स्वच्छता के लिए पुरस्कृत प्नचायत के रूप दर्ज है। कल वही गाँव पुलिस के खून से रंग गया। उत्तर प्रदेश पुलिस के डीएसपी देवेंद्र कुमार मिश्रा की अगुवाई में पुलिस टीम एक हिस्ट्रीशीटर विकास दुबे और उसके गैंग की तलाश में दबिश देने गई थी। वहीं पुलिस दल पर हमला हुआ; डीएसपी देवेंद्र मिश्रा समेत 8 दरोगा, सिपाही शहीद हो गए। दो बदमाशों के मारे जाने की भी खबर है; बाकी भाग गए। भाई देवेंद्र मिश्रा सब इंस्पेक्टर से इस पद तक पहुंचे थे; नौकरी का लम्बा तजुर्बा था। यह मुठभेड़ उनके और अन्य लोगों का जीवन ले गई। सुबह मिली इस खबर ने मुझे झकझोर दिया। पहले मुठभेड़ की खबर और अचानक देवेंद्र मिश्रा के नाम पर नजर... उत्तर प्रदेश पुलिस और समाज का बड़ा नुकसान हुआ। मैंने अपना एक मित्र खो दिया। इसी वक्त हिंदुस्तान अखबार में मेरे साथी रहे संजय त्रिपाठी की हार्ट अटैक से मौत की सूचना आई। मन व्यथित हो गया। एक माह से ज्यादा हो गए, प्रतापगढ़ में गुंडों और पुलिस की मिली भगत के खिलाफ लड़ते हुए। लड़ाई कोई नई नहीं है; स्थान नया है।
अचानक बहुत से सवाल मन में आये। गम भी, गुस्सा भी। जब मै इलाहाबाद में हिन्दुस्तान अखबार का रिपोर्टिंग चीफ बनाकर भेजा गया था; कुछ ही दिन बाद प्रतापगढ़ में एक मुठभेड़ में डिप्टी एसपी जियाउल शहीद हो गए थे... 7-8 साल में फिर एक डीएसपी टीम सहित शहीद हो गए। देवेंद्र मिश्र कानपुर में मेरे मोहल्ले बर्रा में खुले बर्रा थाने के पहले थानेदार के रूप में यूँ ही मेरे दोस्त बने थे और तब से यह रिश्ता चला आ रहा था। देवेंद्र दमदार और हँसमुख आदमी थे। लोगों की मदद करने वाले। जिस थाने में रहते; वहाँ सभी उन्हें पसंद नहीं करते थे? ऐसा इसलिए कि वो सबको खुश करके थाना नहीं चलाते थे। अपराधियों के खिलाफ सख्त थे और इसलिए सबको पसंद नहीं होते थे। केस्को में रहते हुए बिजली चोरों के बड़े गैंग खोले, आउट आफ टर्न प्रमोशन पाए। जीआरपी इलाहाबाद आये तो यहाँ भी जबरदस्त काम किया। मुझसे कहते थे की कभी कभी हमारे दफतर में छापा मारिये; सब ठीक रहना चाहिए न।। वर्दी पहने हैं तो उसका कर्ज तो चुकाया जाए। देवेंद्र भाई आप झटके से चले गए.. आपको और आपकी टीम को मेरा नमन। आप जैसे बहादुर और नेक नीयत लोगों का अकाल है... आप की शहादत बेकार न जाने देंगे। ऐसा इसलिए कह रहे हैं कि पुलिस सुधार की लड़ाई हम और हमारे साथी लड़ेंगे। अगर पुलिस सुधार लागू हो गया होता तो न आप शहीद होते न जियाउल और न तमाम दूसरे लोग जिनका मैं नाम नहीं ले पाया। मुझे ज्यादातर पुलिस आजादी से काम करती हुई नहीं दिखती है; एक गिरोह है जो नेकनियत लोगों पर भारी है। इस गिरोह में बड़े अफसर हैं, बड़े नेता हैं, कारोबारी हैं, न्याय व्यवस्था से जुड़े लोग हैं, पत्रकार भी हैं; ये शुद्ध लालची लोगों का गिरोह है जो तन्त्र अपने हिसाब से नचाना चाहते हैं। मै ऐसा इसलिए कह पा रहा हूँ कि तमाम सचों का गवाह हूँ....
देवेंद्र भाई मै प्रतापगढ़ में लड़ रहा हूँ कि पुलिस की मौजूदगी में किसानों के घर जलाये गए हैं। उनकी औरतो से बेअदबी हुई है। पुलिस मिली थी, उस पर कारवाई हो। और आपको सलाम कर रहा हूँ क्योंकि आप नेक नियत आदमी भी थे; अफसर भी। आप और आपकी टीम लालची तन्त्र के कारण शहीद हुए हैं।
ये जो 60 मुकदमों का आरोपी विकास दुबे है, इसे 20 साल से देख रहा हूँ। इसके घर प्रधानी रही, जिला प्नचायत का मेंबर भी हो गया। पूरा गाँव, इलाका, जिला सब इसकी हकीकत जानते हैं; फिर भी ये चुनाव जीता (इसका दोषी कौन? वो लोग जो वोट डालने गए और बिना आदमी का चरित्र देखे वोट ठोक आए। मै बधाई दूंगा वकील दोस्त अनिल सिंह बिसेन को जिन्होंने जनहित याचिका दाखिल करके इसी हफ्ते यह तय कराया है कि पचायत चुनाव में प्रत्याशी को अपने मुकदमे बताने होंगे; शायद जनता की आँख खुले) और अपराध भी करता रहा। इस विकास दुबे को मैंने पहली बार दैनिक जागरण अखबार के दफतर में देखा था। उन दिनों मैं उप सम्पादक था और मेरे एक सहयोगी से मिलने आया था। मेरे उस पत्रकार साथी का पुलिस में अच्छा सम्पर्क था; एक मंत्री से भी उनके धुआँधार रिश्ते थे। वो मंत्री अब एक सदन के सदस्य हैं। उसी दिन शाम को मेरी भेंट संजय शुक्ल से हुई।। संजय मेरे ऐसे दोस्त हैं जो पत्रकार होना चाहते थे पर बाद में नौकरी करने नहीं आये। संजय उन्हीं राज्य मंत्री संतोष शुक्ला के सगे भाई हैं जिन्हे विकास दुबे ने चौबेपुर थाने के अंदर पुलिस की मौजूदगी में गोलियों से छलनी किया था। तब राजनाथ सिंह जी की सरकार थी, अब जब उसने अपने गिरोह के साथ डीएसपी देवेंद्र मिश्रा और उनकी टीम को गोलियों से छलनी किया तो योगी आदित्यनाथ की सरकार। यह संयोग है या कुछ और मैं नहीं जानता; पर कृपया इसके राजनीतिक निस्कर्श न निकालें। मै कुछ सच इसलिए लिख देता हूं कि जब कभी इतिहास सवाल करे तो मै जवाब दे पाऊँ।
राज्य मंत्री संतोष शुक्ल का हत्या रोपी विकास दुबे इसलिए मुकदमे से छूट गया कि थाने के पुलिस वालों ने गवाही में उसे पहचाना नहीं। ऐसे तमाम लोग छूट जाते हैं इस देश में; अकेले विकास दुबे नहीं। इसलिए मै पत्रकार मित्रों से, सामाजिक लोगों से लगातार कहता हू कि राजनीति में आइये। व्यवस्था सुधारने में जुटिये। पुलिस सुधार, न्याय तन्त्र में सुधार और गवाहों की सुरक्षा पर लिखिये। अगर गवाहों की सुरक्षा मिलने, पुलिस सुधार की उम्मीद जगे तो लोग कानून की मदद में खड़े होंगे।
पर उस वक्त तो राज्यमंत्री के हत्यारे के खिलाफ उनके भाई संजय शुक्ल और उनके कुछ लोग ही लड़ रहे थे; तब यह जनता की लड़ाई बनती तो शायद देवेंद्र मिश्र शहीद न होते।
मैंने अपने पत्रकार मित्र विकास तिवारी से उसी वक्त कहा था भाई गुंडों का तन्त्र मजबूत है। हमें संजय की मदद करनी चाहिए; जो कर सकते थे किया भी था। क्या किया? यह बताने का वक्त नहीं।
अभी भी चेतना आ जाए तो विकास दुबे, कुलदीप सेंगर जैसे गुंडे पनप नहीं सकते। फलने फूलने की बात तो दूर है। मुझे वो दिन भी याद है जब देश के एक बड़े सम्पादक ने मुझे इलाहाबाद भेजते वक्त कहा था... ब्रजेंद्र इलाहाबाद में दो चीजों की अखबारी मार्केट है... एक संगम की और दूसरी अतीक अहमद की... लोग इन खबरों को पढ़ना चाहते हैं। ध्यान रखना कि इनसे जुड़ी गतिविधियां मिस न होने पाएं अखबार में। आज जब यह पोस्ट लिख रहा हूँ तो दो खबरें मार्केट में हैं। अखबार की मार्केट में....कानपुर में डीएसपी देवेंद्र मिश्र और उनकी टीम की मुठभेड़ में शहादत की खबर। दूसरी ये कि . . .
माफिया (पुलिस की भाषा में) माननीय पूर्व सांसद ( जन तन्त्र की शब्दावली में) अतीक अहमद का छोटा भाई अशरफ (ये भी पूर्व विधायक; माननीय) गिरफ्तार कर लिया गया है। कुछ साथी इस पर भी टोक सकते हैं कि किया गया है या किए गए हैं। पुलिस अतीक के गैंग के दूसरे सदस्यों की अलग से हिस्ट्रीशीट खोलेगी। ये शीटें तो खुलती रहेंगी... मैं आपकी आँख खोलना चाहता कि अब पुलिस सुधार और न्याय प्रणाली में बदलाव की बात शुरू हो? बताइये ठन्डे पानी की छीटें मारूँ या गुनगुने????
बृजेन्द्र प्रताप सिंह जी की फेसबुक वाल से साभार।
No comments:
Post a Comment