पूरी दुनिया के त्योहारों में "ईद उल अजहा" या बकरीद ऐसा त्योहार है जो कम से कम भारत में दूसरे धर्म के लोगों की सबसे अधिक आर्थिक मदद करता है।
ईद उल अजहा त्योहार है तो मुसलमानों का मगर इससे सबसे अधिक कमाई गरीब हिन्दुओं की होती है। जो साल साल भर बकरा या अन्य जानवर पाल कर वर्ष में इसी एक दिन का इंतज़ार करते हैं कि उनका जानवर उनकी मुँह माँगी कीमत पर बिकेगा और उनके घर की स्थीति सुधरेगी। तमाम निचली जाति के हिन्दू तो 10-20 बकरा केवल बकरीद में बेचने के लिए ही पालते हैं और उनको इससे एकमुश्त ₹4-5 लाख तक मिल जाते हैं।
इस साल पशुप्रेमी खुश हो जाएँ क्युँकि बकरे और कुर्बानी के अन्य जानवरों की बाज़ार कम से कम उत्तर प्रदेश में 10% भी नहीं है। वैसे इस पर सरकारी प्रतिबंध तो नहीं पर सरकार की मंशा के अनुसार पुलिस प्रशासन सख्ती कर रहा है। लोग चोरी छुपे बकरे ला रहे हैं और घर घर ले जाकर गिड़गिड़ा कर बेच रहे हैं।
बकरीद पर अंतिम दिन तक दिखने वाली इनकी ठसक गायब है।
ना तो इस बार वैसी बाज़ार लग रही है ना वह मुँहमाँगा दाम है ना बकरों को शहर में लाने की वैसी आज़ादी है।
इस बार लगता है बहुत से जानवरो की जान बचेगी और उसके बाद इंसान मरेगा। ठीक भी है , पशु प्रेमियों के अनुसार बकरे जिन्दा रहने चाहिए भले इंसान नंगा भूखा होकर मर जाए।
ग्रामीण अर्थ तंत्र की जड़ में हुए इस वार को सबसे अधिक कौन भुगतेगा। यह आने वाला समय सिद्ध करेगा। आप और हम तो बस तमाशा देखते रहिए।
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