जम्मू और कश्मीर ..
बचपन से बस यही नाम सुनते आए हैं, सो याद भी यही रहता है। मगर जम्मू और कश्मीर सिर्फ दो इलाके है इस क्षेत्र के। जो प्रिंसली स्टेट थी, उसमे जो दीगर इलाके भी शामिल थे, जिन्हें हम अलग नही समझते। और यही ऐतिहासिक तथ्य समझने में चूक होती है।
शुरुआत जम्मू से, जो सिख महाराजा रणजीत सिंह की टेरेटरी था। इस इलाके के गवर्नर थे गुलाब सिंह, वही जो आगे डोगरा राजवंश बनाने वाले थे। जम्मू, हिन्दू और सिख बाहुल्य इलाका है, हिमालय की पाद भूमि है। भारत को शेष वैली से जोड़ने के लिए यह इलाका महत्वपूर्ण है। 1965 में इसी इलाके पर पाकिस्तान ने कब्जा जमा लिया था, तो दबाव घटाने के लिए हमे लाहौर में उनकी नस दबानी पड़ी।
बगल में पुंछ है, इसके ऊपर आती है, कश्मीर की घाटी। इस घाटी को गुलाब सिंह ने खरीदा अंग्रेजो से। यह इलाका भारतीय नृवंश के लोगो का है, जिसमे अधिकांश सुन्नी मुस्लिम हैं। इसी घाटी के 4 जिले 1947 पाकिस्तान के कब्जे से नही छुड़ाए जा सके। बाकी की कश्मीर घाटी, हमारी फौजो ने कबायलियों को खदेड़कर हासिल की, जो उस वक्त श्रीनगर को घेर चुके थे।
ऊपर बाल्टिस्तान का इलाका है, और पूर्व में लद्दाख, ये तिब्बती नृवंश के लोग है। मगर लद्धाख में बौद्ध धर्म को मानने वाले हैं, तो बाल्टिस्तान में यही लोग शिया मुस्लिम हैं। इसी इलाके में हुंजा वैली भी है, जिसमे ग्रीक मूल के लोग रहते है। ये लोग भी मुस्लिम है, मगर अपने को सिकन्दर की सेनाओं को वंशज मानते है। वो सैनिक जो सिकन्दर के साथ वापस नही गए और यहीं बस गए।
गिलगित बाल्टिस्तान को अंग्रेजो ने राजा से लीज पर लिया था। सन 47 में लीज भंग हुई तो राजा ने सत्ता वापस लेने डेलिगेशन भेजा। लोकल लोग राजा को वापस नही चाहते थे। विद्रोह किया, काउंसिल बनाई और पाकिस्तान में विलय कर लिया।
गिलगित बाल्टिस्तान के इलाके को भी आम भारतीय पाक अधिकृत कश्मीर समझते है। यह टेक्निकली सत्य नही है। जनता काउंसिल द्वारा पाकिस्तान में स्वेच्छिक विलय के बाद उस पर अटैक करके जीतना, उस दौर में जूनागढ़ और हैदराबाद के हमारे ही तर्क के खिलाफ जाता। ऐसे में एक्सेशन डॉक्यूमेंट के बेस पर, तब की सरकार यूएन गयी थी।
स्टेट के पूर्व में एक विशाल ठंडा रेगिस्तान है,अक्सई चिन। एक छोर पर लद्दाख है, दूसरी ओर तिब्बत। यह सच है कि एक दफे, जोरावर सिंह के नेतृत्व में सिख फ़ौज रेगिस्तान पार कर तिब्बत में घुसी, कुछ जीते हासिल की। दावे मानसरोवर तक के है, मगर यह मुकम्मल जीत नही थी। जोरावर साहब वहीं शहीद हुए और उनकी समाधि आज भी वहीं है। देशभक्त चाहे तो समाधि को सीमा बता सकते है।
मगर ऐतिहासिक असलियत यही है कि राजा कश्मीर का वास्तविक कंट्रोल, आखरी चौकी लद्दाख तक थी। वही उन्होंने भारत को ट्रांसफर किया।
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लेकिन उनके मैप, बॉउंड्री को रेगिस्तान पार तक दिखाते थे। ऐसा क्यों?? जाहिर बात है कि राजा को अपने राज्य का बड़ा मैप अच्छा लगता है। उन्होंने बॉउंड्री निर्धारण के लिए अंग्रेज सर्वेयर अपॉइंट किये। सर्वे करने वालो ने वाटरशेड बेस पर बॉउंड्री बना दी। नक्शा खींचकर एक कॉपी चीन राजा को भेजी गई। याद रहे तिब्बत ऑटोनोमस था जरूर, मगर सोवर्निटी बीजिंग की थी। बीजिंग के राजा ने इन मैप्स पर ध्यान नही दिया। न अप्रूवल भेजा न डिनायल।
नो डिनायल को एक्सेप्टेंस मानकर डोगरा राजे मजे में इस इलाके को अपना बताते रहे।
सवाल ये कि राजा जी ने कब्जा मुकम्मल क्यों न किया। बाड़ तार औऱ फ़ौज लगा देनी थी न!!! तो दो कारण।
पहला रेवेन्यू.. रियासत चलाना एक धंधा है। वो रियाया और रेवेन्यू पर निर्भर है। जहां रियाया याने पब्लिक हो, उसे ही कब्जा किया जाता है, कर वसूलने के लिए। जिन दो गांव का टैक्स आप वसूलते है, तो मान लीजिए कि बीच के पहाड़ भी आपके ही हैं। राजा का आखरी रेवन्यू विलेज लद्धाख था, तो सेटअप भी वहीं तक था।
दूसरा महत्वपूर्ण कारण, उस जमाने मे सीमाएं नैचुरल चिन्हों से तय कर ली जाती थी। फलां नदी, फलां पहाड़ की चोटी, अराउंड द ग्लेशियर.. । आज ग्लेशियर खिसक गए, नदियों के पाट बदल गए। दूसरा पक्ष जिसने राजा के वक्त कोई प्रतिरोध नही किया था। अब सबल होकर ताल ठोक रहा है। आजाद भारत द्वारा क्लेम की जा रही राजा की बॉउंड्री मानने से इनकार कर रहा हैं।
नेहरू से मोदी तक सभी, डोगरा किंगडम की अपुष्ट सीमाओं,घटनाक्रमों और क्लेम्स की लेजिटमेसी के विरोधाभास को झेल रहे हैं। जिन्हें सत्ता में रहकर बारीकियां मालूम थी, वे गम्भीर रहते थे। समझाने की कोशिश की- नॉट के ब्लेड ऑफ ग्रॉस इज ग्रोन देयर।
हमने उन्हें कायर समझा। उनके मुकाबले, जो सड़को पर मार देंगे-काट देंगे, जान दे देंगे की बात करने लगे, हमारा मन मोह गए। वीरता की लहर पर चढ़कर आये नेता असलियत देखकर किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते है। युवा अटल ने सन्सद में पीएम नेहरू को जिन बातों के लिए जलील किया, वही समझौता पीएम अटल में 2003 में कर आये। 2013 में लाल लाल आंख दिखाने वाले विपक्षी मोदी जी को भी पीएम मोदी बनकर यही करना था।
.. कर रहे है। घुसकर मारने की बात तो दूर, 20 लाशें जहां बिछी उसे अपनी भूमि मानने से इनकार कर दिया। जब देश के घाव पर मरहम लगाना था, चने बांटने की बाते कर रहे हैं। मूर्ख तो वादों पर हम अपनी मर्जी से बने है, क्योकि हम बनने को तैयार है। उन्होंने हमारी ख्वाहिश पूरी की है।
बहरहाल, होश की दवा बाटने की कोशिश है। पढ़ें, समझें, औरों को समझायें।
लेखक : मनीष सिंह
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