साँप के गुज़रने पर लाठी पीटना :-
बात 2001 की है वर्तमान रक्षामंत्री राजनाथ सिंह तब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे।
''राजनाथ सिंह सरकार में मंत्री का दर्जा पाए संतोष शुक्ला की थाने के अंदर हत्या हुई थी, पुलिस वाले गवाह थे, इंस्पेक्टर गवाह था, SI गवाह थे, लेकिन एक भी गवाह अदालत में नहीं खड़ा हुआ, सब मुकर गए और विकास दुबे बरी हो गया''।
हत्या, अपहरण, लूटपाठ, अवैध कब्जे जैसे 60 संगीन एफआईआर धारी खुला एके-47 रखे आज़ाद घूमता रहा और यह पुलिस को ना मालूम हो ऐसा संभव ही नहीं।
पुलिस को तो अपने क्षेत्र के एक टुच्चे जेबकतरे , चोर तक के घर पते सब पता होते हैं , फिर उसे 60 अपराधिक मुकदमें वाले "विकास दूबे" का आज़ाद होना नहीं पता होगा यह कैसे संभव है ?
और पुलिस ने उसे जानबूझ कर छोड़ा हो यह भी संभव नहीं। तो कौन है वह सफेदपोश जो योगी जी की "ठोको" नीति से ना सिर्फ उसे बचाया बल्कि उसे इतना अधिकार दिया कि वह प्रतिबंधित एके-47 रख सके।
सोचिए कि पुलिस के कार्य करने का आधार क्या है कि थाने के अंदर हुई राज्यमंत्री संतोष शुक्ला की हत्या का भी कोई गवाह अदालत के सामने नहीं आता।
दरअसल , पुलिस अब कानून की नहीं बल्कि सत्ता और सरकार की गुलाम हो चुकी है।
जो पुलिस सपा सरकार में आज़मखान की भैंस ढूँढती थी वही पुलिस योगी सरकार में आज़मखान पर सैकड़ों मुकदमें लाद कर आजमखान को सपरिवार अंदर कर देती है।
जो पुलिस गोरखनाथ मंदिर के महंत और सांसद योगी को संसद के अंदर रोने को मजबूर कर देती है वही पुलिस उनके मुख्यमंत्री बनने पर "ठोको" अभियान के तहत उनके विरोधियों को तो ठोकने लगती है पर "विकास दूबे" बचा रह जाता है।
दरअसल समर प्रताप सिंह और अमित कुमार जैसे पुलिस वाले सिर्फ़ फिल्मों में ही नज़र आते हैं जो सरकार और अपने उच्च अधिकारी के सामने सच को हक को कहने की हिम्मत करते हैं वहीं बच्चू यादव और साधू यादव जैसे नेता आज की वास्तविक राजनीति में बैठे हुए हैं।
उत्तर प्रदेश पुलिस के 9 जवानों को शहीद करने वाला विकास दूबे यदि 60 घंटे बाद अभी भी पुलिस और कानून की पहुँच से दूर है तो उसका कारण वही है , जो कारण थाने में हत्या करने के बाद भी उसे बरी कर देता है।
सफेदपोश उसे बचाएगा , क्युँकि उसकी राजनीति उसी विकास दूबे की बदौलत चलती रही है , पर मुझे उम्मीद है कि इस बार शायद ही उत्तर प्रदेश पुलिस उसे बख्शेगी।
इनकाउंटर तो निश्चित ही है , होना भी चाहिए , पुलिस पर इस तरह का हमला कानून सम्मत राज्य में उचित ही नहीं।
पर , उसका घर गिराना , उसके घर पर बुल्डोजर चलवाना, तोड़ देना भी ठीक वैसा ही है जैसे गलवान घाटी खोने के बाद "टिकटाॅक" पर प्रतिबंध लगा देना।
उसका घर यदि नियमों के विरुद्ध बना था तो उसके लिए संबन्धित विभाग है , उसकी गाड़ियाँ यदि गैरकानूनी थीं तो उसे सीज करना था , पुलिस द्वारा विकास दूबे के घर का तोड़फोड़ और विद्धवंषक कार्यवाही किस कानून के तहत उचित है ? तब जबकि उस घर में उसके वृद्ध माता पिता रहते हैं।
घर से अपराध हुआ है तो उसको कानूनी प्रक्रिया पूरी होने तक सील किया जा सकता था , वाहनों को ज़ब्त किया जा सकता था। घर गिराना तो एक तरह से साक्ष्य मिटाने जैसा है।
पुलिस निश्चित रूप से गुस्से में होगी , पर उसी के ऊपर देश के कानून और संविधान के रक्षा करने की ज़िम्मेदारी भी है , उसका इस प्रकार आवेश में आकर कानून अपने हाथ में ले लेना उचित भी नहीं।
यदि वह 2001 में ही कानून के साथ खड़ी होकर गवाही दे दी होती तो उत्तर प्रदेश पुलिस के इतने लाल शहीद नहीं हुए होते।
घर गिराना तो साँप के गुज़र जाने के बाद लाठी पीटने जैसा है। सांप को पकड़िए और कानूनसम्मत सज़ा दिलाईए , देर हो जाएगी तो वह उसी बिल में घुसकर सुरक्षित हो जाएगा जैसे 2001 में घुस कर हो गया था।
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