भारतीय राजव्यवस्था ने जो संवैधानिक आवरण 26 जनवरी 1950 को धारण किया था।उसी संवैधानिक आवरण का चीर हरण राम के नाम पर 6 दिसम्बर 1992 को हिन्दू अतिवादियों ने कर डाला।दुर्भाग्य से उस दिन न्याय पालिका सहित पूरी की पूरी राजव्यवस्था लाचार और नग्न हो गई क्योंकि जो कुछ वहाँ हुआ वह न्याय पालिका की निषेधाज्ञा और सरकारी चेतावनी के बाद हुआ।जैसे जैसे विवादित ढांचा वहाँ हिन्दू उग्रवादी ध्वस्त कर रहे थे वैसे वैसे पूरी राजव्यवस्था आवरणहीन हो रही थी।लगा तो इस देश में आपातकाल भी था लेकिन वह भी संविधान का ही एक अन्तः वस्त्र था।
होने को तो बहुत आंदोलन भी इस देश में हुए और आन्दोलनों में जान माल की हानि भी बहुत हुई लेकिन इस प्रकार न्यायालय की निषेधाज्ञा का खुला उल्लंघन कर बहुसंख्यक उग्रवाद का नग्न तांडव नहीं देखा गया। अगर सिक्ख दंगों में यह हिंसक तांडव दिखा भी तो वह त्वरित प्रतिक्रिया के रूप में न कि किसी सुनियोजित आंदोलन के तहत हुआ।
आश्चर्य ये है कि निषेधाज्ञा के बावजूद जिन व्यक्तियों के नेतृत्व में ये सब कुछ हुआ वो सब न सिर्फ राष्ट्रीय छवि के नेता बने बल्कि उन्होंने उच्च संवैधानिक पदों को भी सुशोभित किया।मंदिर आंदोलन से शुरू हुआ फासिज़्म का ये दौर आज देश की राजव्यवस्था पर पूरी तरह काबिज़ हो चुका है।न्यायालयों की हालत इतनी दयनीय है कि देश की संवैधानिक अस्मिता के लुटेरों को दंडित करने की बजाय उनके दबाव में फैसले लेने के लिए मजबूर हैं।
न्याय का तकाज़ा यह था कि जिन लोगों की अगुवाई में देश की राजव्यवस्था की अस्मिता को इस तरह रौंदा गया उनको त्वरित सुनवाई के बाद कड़ी से कड़ी सजा देने के बाद ही मंदिर-मस्जिद का फैसला होना चाहिये था लेकिन पुनः ये साबित हुआ कि न्यायपालिका भी फासिज़्म के कब्जे में है।बाबरी मस्जिद विध्वंस की वो घटना हिंदू आतंकवाद की अवधारणा को सच साबित करने के लिए पर्याप्त साक्ष्य है।उस दिन से बहुसंख्यक हिंदुओं के दबाव में आयी देश की राजव्यवस्था आज पूरी तरह हिन्दू फासिज़्म का शिकार है।
दण्डित किये जाने योग्य लोगों को पुरस्कृत करने वाली व्यवस्था के साथ अंत में यही होना था।धर्म निरपेक्ष लोकतंत्र की धज्जियाँ उड़ाता हुआ प्रेस,माखौल उड़ाती हुई छद्म निर्वाचन द्वारा बनी सरकारें, हो हल्ले का बहुमत, सरकार की बन्धुआ जैसी न्याय पालिका और हिन्दू अतिवादियों की वफ़ादार नौकर शाही इन सब के अलावा सत्ता के पक्ष में खड़े सभी राजनैतिक दल और उनके नेता देश की राजव्यवस्था के इन सभी अंगों को लगता है कि वे उस व्यवस्था के वफ़ादार हैं जिसने उन्हें सत्ता का सुख उपलब्ध करवाया है लेकिन उनको नहीं पता है कि तमाम धार्मिक और जातिवादी हथकंडे इस्तेमाल करने के बावजूद एक जन क्रांति वर्तमान अनाचार के खिलाफ देश के अंतरतम में कुलबुला रही है।राम के नाम पर जब देश की राजव्यवस्था का चीरहरण हो रहा था तब उसकी मर्यादा और लाज बचाने के लिए कोई कृष्ण नहीं प्रकटे...तो अब धर्म का क्षत्र शायद ही जनाक्रोश से सत्ता के सौदागरों को बचा पाए.....
पुष्कर नाथ शुक्ल
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