अभी कुछ दिनों पहले सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया निजता के अधिकार के विषय मे, हर व्यक्ति को उसकी निजता को निजी रखने का हक है ।।
ये फैसला सही भी है और कुछ मामलों में गलत भी है।।
मेरे पास कितनी निजी संपत्ति है कितना धन है यह हर व्यक्ति का निजी मामला है पर इसे निजी नही रखा जा सकता है ।।
निजता के अधिकार के मामलों में सरकार को मानदंड तय करने होंगे कि क्या क्या निजी रखना है और क्या क्या सार्वजनिक करना अनिवार्य होगा।।
खैर अभी हाल में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया है अभी इसमें तमाम बहस होंगे और निर्धारण होगा उम्मीद करता हु जो होगा अच्छा ही होगा।।
एक और विषय है जिसमे बहस व नीति निर्धारण की आवश्यकता है *राइट टू वाच*
भारत का ज्यादातर हिस्सा सँयुक्त परिवारवादी है, व परम्परावादी है।।
आजकल इलेक्ट्रॉनिक युग मे टेलीविजन हर घर मे है , लोग परिवार में टेलीविजन में जो जो सिरियल या जो एडवर्टिजमेंट (प्रचार सामग्री) आ रहा है वह क्या वह परिवार की परंपरा में या परिवार के साथ देखने योग्य है यह सोचनीय विषय है??
परिवार में 3 कैटेगरी होती है
महिलाओं की जो सीरियल आदि देखते है, पुरुषों की जो न्यूज़ या फिल्में आदि ज्यादा देखते है, बच्चो की जो गाने या कार्टून देखते है।।
ज्यादातर घरों में यही है।।
लेकिन आजकल या पूर्व से ही विज्ञापनों के विषय वस्तु में प्रचार के नाम पर ऐसी अश्लीलता परोसी जा रही है कि कोई भी व्यक्ति अपने परिवार के साथ टेलीविजन नही देख सकता है।।
सोचिये आप छोटे भाई या पिता के साथ न्यूज़ चैनल देख रहे हो और उसी समय उसमें कंडोम के विज्ञापन में *सनी लियोनी* आ जाती है और गाना बजता है * मन क्यों *बहका रे बहका आधी रात में* आप कैसा महसूस करेंगे, उस समय दो ही विकल्प होंगे या तो चैनल बदलिये या उठ जाइये,
अगर घर की महिलाएं सीरियल देख रही हो तो उस मे भी आप चाह कर भी साथ बैठ कर टेलीविजन नही देख सकते,
हद तो तब हो जाती है जब कार्टून चैनलों में भी *व्हिस्पर* या अन्य *सेनेटरी पैड* या *कंडोम* का प्रचार आने लगता है, जरा सोचियेगा की कार्टून 2 साल से अधिकतम 10 साल के बच्चे देखते है उन्हें यह सब दिखाने की क्या आवश्यकता है, और अगर वह बच्चा आपसे उस कंडोम के बारे में या सेनेटरी पैड के बारे में या उसकी उपयोगिता के बारे सवाल कर ले तो क्या जवाब होगा आपके पास??
सवाल यह है कि यह सब कार्टून चैनल या भक्ति चैनलों या न्यूज़ चैनलों पर दिखा कर कम्पनियां क्या हासिल कर रही है??
आज कोई भी पारिवारिक परम्परा का व्यक्ति अपने परिवार के साथ बैठ कर *सीरियल, न्यूज़, कार्टून, यहाँ तक कि भजन,* भी परिवार के साथ नही देख सकता,
साथ ही आजकल अक्सर आप इंटरनेट प्रयोग कर रहे है या यूट्यूब पर वीडियो देख रहे है बच्चे के साथ उसी समय आपके फोन स्क्रीन पर अश्लील साइट का विज्ञापन आ जाता है स्थित कैसी होती है??
क्या यह मेरे *राइट टू वाच* के अधिकार का हनन नही है??
देश के मिडियातन्त्र, राजनैतिक व्यक्तियों, समाजविद, बुद्धिजीवी वर्ग से मैं यह पूछना चाहता हूँ कि क्या यह मेरी व्यक्तिगत समस्या है, क्या समाज के अन्य लोगो के साथ यह समस्या नही है।
आज भारतीय समाज मे परम्पराओ व संस्कार की जड़े बहुत कमजोर हो चुकी है, लेकिन जो बची भी है वह इस *पोर्न विभीषिका* से कमजोर हो रही है,
मेरा इस देश के *बुद्धिजीवी वर्ग, राजनीतिक दलों व व्यक्तियो, मीडिया तंत्र के लोगो सामाजिक संगठनों व समाज के नागरिकों* से निवेदन है कि आने वाली पीढ़ियों को इससे बचाये वरना नुकसान हमारे ही परिवार व समाज के साथ देश का ही होगा,
इस पर बहस होनी चाहिये और समाज के हर वर्ग को आवाज उठानी चाहिये कि हम इससे कैसे बचें,
जब टेलीविजन खरीदने व डिश रिचार्ज के साथ साथ इंटरनेट डाटा हर चीज का शुल्क देते है, तो हम क्या देखेंगे और हमे क्या देखना है इसका अधिकार हमारे पास होना चाहिये न कि इन कम्पनियो के पास,
हमे कोई चैनल या किसी कम्पनी का डाटा मुफ्त नही मिलता....
*राइट टू प्राइवेसी* के साथ साथ *राइट टू वाच* भी जरूरी है।।
परम्परा व सभ्यता युक्त समाज की परिकल्पना के साथ.
रिपोर्ट-अंजनी त्रिपाठी
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