विगत दिनों कुछ घटनाये हुई, जो अखबारों या न्यूज चैनलों के माध्यम से सब जानते है,
मेरे पास खबरों का माध्यम सिर्फ सोशल मीडिया है, अखबार पढ़ने या न्यूज देखने का समय भी नही और विश्वास भी नही,
मैं शोसल मीडिया से प्राप्त खबरों का स्वतः विश्लेषण कर उन पर यकीन करता हूं व अपना नजरिया रखता हूँ,
खैर सकारात्मक या नकारात्मक दोनो पहलू हर जगह है , खुद पर निर्भर करता है कि हम क्या देख पा रहे,
दिल्ली की राहुल राजपूत (दलित) राजस्थान बाबू पुजारी, उत्तर प्रदेश हाथरस या बीते कल यानी 13 अक्टूबर को सचिवालय के सामने अंजना उर्फ आएशा द्वारा किया गया आत्मदाह का प्रयास या सुल्तानपुर में साधु को गोली मारी गयी......
खबरे बहुत सारी है, अखबारों के पन्नो में न्यूज चैनलों तक तो आम खबरें जिनमे जाति धर्म का मसाला न हो पहुंच ही नही पाती....
कभी कभी मन मे आता है कि आखिर हो क्या रहा है? मानवीयता का स्तर कितना गिर रहा है? सामाजिक मर्यादा, मानवीय मूल्य, कानून व्यवस्था धर्म, क्या सब खत्म होने के कगार पर है??
किसी धर्म गुरु से कारण पुछिये जवाब मिलेगा, जीवन से धर्म और अध्यात्म कम होना अपराधों योय बढ़ना है,
सामाजिक लोगो से बात करिये तो वह गिरते सामाजिक मूल्यों का क्षरण बताएगा, राजनीतिक व्यक्ति से बात करिये तो वह सरकार की कमी व कानून व्यवस्था की कमी बताएगा,
कुल मिलाकर हर व्यक्ति अलग अलग कारण बताएगा, सहमति असहमति अलग पर किसी से पूर्ण असहमत भी नही हुआ जा सकता,
चलिये मान लिया कारण अलग अलग हो सकते है पर इनका जिम्मेदार कौन??
सत्ता या जनता या धर्मगुरु या मीडिया या.....??
मेरे विचार से सब जिम्मेदार है......
लोगो के मन मस्तिष्क में कानून व संविधान व्यवस्था के प्रति अविश्वास खत्म हो चुके सामाजिक मानवीय मूल्य के साथ धर्म व अध्यात्म की कमी इन सब का कारण है, वह चाहे जिस प्रकार के सामाजिक अपराध हो.....
आमजनता में अब कानून व न्यायपालिका के प्रति अविश्वास इस कदर बढ़ चुका है कि इनसे अपेक्षा के बजाय स्वतः कदम उठाता है, धर्म व अध्यात्म की कमी से धैर्य की कमी है,व जाति धर्म मे बटते जा रहे समाज मे सामाजिक मूल्य खोजना भी बेवकूफी है,
आजादी के 70 साल बाद भी पुलिस व न्यायपालिका का रिफॉर्म न होना संविधान की ओवरहॉलिंग न होना भी इसके प्रति अविश्वास का एक कारण है,
और जिम्मेदार हम सब है, चाहे हम राजनेता हो या जनता या अफसर या मीडिया चाहे भक्त हो या चमचे......
हा कारण अलग अलग हो सकते है पर इसके कारक मुख्य तीन है,
एक राजनेता जिसे जनता ने जिम्मेदारी दी है नेतृत्व की मगर वह एन केन प्रकारेण सत्ता सुख में मदमस्त है या सत्ता के लिये जूझ रहा मुद्दा कोई भी हो दूसरा मीडिया क्यों कि वर्तमान मीडिया पूरी तरह से कठपुतली है कोई सत्ता की कोई विपक्ष की स्वतंत्र कोई नही तीसरे अंधभक्त और चमचे इनकी महिमा ही अपरम्पार है वर्णन असीमित है,
बहुत सी खबरे प्रकाशित होती है बहुत सी दब भी जाती है, खबरों पर बहस होती है हर जगह पर क्या कारणों या कारकों पर भी बहस होती है.....??
ऊपर कुछ विषय हमने लिखा है, वह सिर्फ ध्यानाकर्षण के लिये है, उन घटनाओं के कारणों व उस पर हुई चर्चा या राजनीति पर विचार करियेगा.....
एक बात समझ मे नही आती, जिस प्रकार से सामाजिक अपराध हत्या बलात्कार आदि बढ़ रहे है, आखिर समाज क्यों सो रहा है?
जब कभी आत्मचिंतन या विचार/ विश्लेषण करता हूं तो लगता है, एक खेल खेला जा रहा है, राष्ट्र व राष्ट्र की जनता के साथ और इस खेल में भागीदार भी सब है, कोई मैदान में है कोई दर्शक दीर्घा में,
उदाहरण पुनः उपरोक्त घटनाओं का ही करूँगा......
हाथरस की घटना हुई... कारण कारक क्या थे उसे बनाया क्या गया? बलात्कार हुआ नही हुआ इसे छोड़िये बलात्कार किसके साथ हुआ?? दलित के साथ या लड़की के साथ?? करने वाले कौन थे?? सवर्ण या दरिंदे??
दूसरी घटना कल यानी 13 अक्टूबर जगह भाजपा कार्यालय व विधानसभा सचिवालय के सामने लखनऊ आग लगाकर आत्मदाह की कोशिश अंजना उर्फ आसिफा द्वारा, कारण क्या है? न्याय न मिलना या न्याय की आशा खत्म होना ?? लव जेहाद?
चलिये ठीक है लव जेहाद में ठगी गयी लड़की मगर आत्महत्या क्यों?? न्याय की आशा खत्म होना, आपको मुद्दा क्या दिया गया लव जेहाद ट्रेडिंग करते रहिये सोशल मीडिया पर, मूल मुद्दा खत्म हो गया,
तीसरा मुद्दा राजस्थान बाबू पुजारी की हत्या, चौथा मुद्दा यूपी में साधु को गोली मारी गयी, यहां के सत्ता पक्ष व अंधभक्त राजस्थान की ढपली बजाए विपक्ष और चमचे यूपी की ढपली बजाए,
बाकी इंसान को थोड़ी गोली मारी जाती है, या किसी लड़की का बलात्कार थोड़ी होता है, होता तो मुद्दों का है,
इनमे एक घटना दिल्ली की भी है, जहां प्रेम प्रसंग में हत्या होती है लड़की के परिवार द्वारा लेकिन वह दुर्भाग्य से मुद्दों में नही आता क्यों कि वह अखलाक या पहलू खान नही है, इसलिए उसकी हत्या मॉब लिंचिंग में नही मानी जा सकती....
खैर इस बीच या हर हर रोज नई घटनाये होती रहती है, विशाल जनसंख्या वाले देश मे बड़ी नही कही जाएगी कुछ अंधभक्तो के द्वारा....
पर दुर्भाग्यपूर्ण विडम्बना यही है कि हम मनुष्य नही बचे है, हम हिन्दू मुस्लिम दलित अल्पसंख्यक फलाना ढिमका के साथ साथ दक्षिणपंथी वामपंथी के रूप में विभक्त हो चुके है, कही हम खुद हुए है कही किया गया है कही किया जा रहा है......
हम बचे है तो सिर्फ मुद्दों के रूप में वह भी योग्यता के अनुसार,
क्या कभी ऐसा नही लगता कि लोकतंत्र के चारो स्तम्भो द्वारा ऐसा किया जा रहा जिससे हम उनकी नाकामी न देख पाए या सवाल न उठा पाए??
वो हमें मुद्दा देते रहते है और हम भी मुद्दों के अनुसार अपनी भूमिका तय करते रहते है....
ऐसा क्यों होता है कि सामाजिक अपराधों का जातीय या धार्मिक वर्गीकरण किया जाता है?? जिससे एक वर्ग मौन हो दूसरा मुखर सामाजिक मुद्दों पर सवाल न उठे? वोटबैंक की रोटी सेकने में आसानी रहे??
फिलहाल अंतर्मन की व्यथा यही है और यही मेरी सोच और मेरा नजरिया भी यही है.....
मुद्दा मत बनिये बल्कि मुद्दा बदलिये
सब बनिये भक्त भी चमचे भी, लेकिन सिर्फ राजनीतिक मुद्दों पर
अपने अपने जाति धर्म के लिये भी मुखर रहिये पर सिर्फ वही तक सामाजिक मुद्दों का वर्गीकरण मत करिये, नुकसान उनका नही समाज का हो रहा है,
और जो चाहे वो बनिये पहले मनुष्य तो बन जाइये....
रिपोर्ट - अंजनी त्रिपाठी
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