डिंको सिंह ने कभी ओलंपिक पदक नहीं जीता लेकिन इसके बावजूद उन्होंने भारतीय
मुक्केबाजी में अमिट छाप छोड़ी जो भावी पीढ़ी को भी प्रेरित करती रहेगी।
डिंको सिंह केवल 42 साल के थे लेकिन चार साल तक यकृत के कैंसर से जूझने
के बाद गुरुवार को उन्होंने इम्फाल स्थित अपने आवास पर अंतिम सांस ली
जिससे भारतीय मुक्केबाजी में एक बड़ा शून्य पैदा हो गया।
उनकी
सबसे बड़ी उपलब्धि बैकाक एशियाई खेल 1998 में स्वर्ण पदक जीतना था। यह भारत
का मुक्केबाजी में इन खेलों में 16 वर्षों में पहला स्वर्ण पदक था। उनके
प्रदर्शन का हालांकि भारतीय मुक्केबाजी पर बड़ा प्रभाव पड़ा जिससे प्रेरित
होकर कई युवाओं ने इस खेल को अपनाया और इनमें ओलंपिक पदक विजेता भी शामिल
हैं।
इनमें एम सी मैरीकोम भी शामिल हैं जिन्हें मुक्केबाजी में
अपना सपना पूरा करने के लिये घर के पास ही प्रेरणादायी नायक मिल गया था।
मैरीकोम के अलावा उत्तर पूर्व के कई मुक्केबाजों पर डिंको का प्रभाव पड़ा
जिनमें एम सुरंजय सिंह, एल देवेंद्रो सिंह और एल सरिता देवी भी शामिल हैं।
डिंको ने एक बार पीटीआई से कहा, 'मुझे विश्वास नहीं था कि मेरा इतना व्यापक प्रभाव पड़ेगा। मैंने कभी ऐसा नहीं सोचा था। '
डिंको का जन्म इम्फाल के सेकता गांव में एक गरीब परिवार में हुआ
था। उनके लिये दो जून की रोटी का प्रबंध करना भी मुश्किल था जिसके कारण
उनके माता पिता को उन्हें स्थानीय अनाथालय में छोड़ने के लिये मजबूर होना
पड़ा।
यहीं पर भारतीय खेल प्राधिकरण (साइ) द्वारा शुरू किये गये विशेष क्षेत्र खेल कार्यक्रम (सैग) के लोगों की नजर डिंको पर पड़ी थी।
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