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Sunday, 28 June 2020

आंदोलन सरकार के खिलाफ होता है, आप जिस से फंड ले रहे हों, उसके विरोध में एक हद से ज्यादा उतर ही नहीं सकते

यदि कम्युनिस्ट आंदोलन कमजोर हो गया है, तो इसका पहला कारण तो एनजीओ संस्कृति है. इससे दो नुकसान हुए दरअसल.


पहला,  कुछ ऐसे लोग जो अच्छे कम्युनिस्ट हो सकते थे, वे या तो एनजीओ चला रहे हैं या एनजीओ में नौकरी कर रहे हैं. हालांकि कुछ लोगों को एनजीओ में नौकरी पाने के लिए नकली कम्युनिस्ट बनना पड़ता है.

 दूसरा नुकसान यह हुआ कि इन लोगों ने नागरिक आंदोलनों की संभावना को लगभग खत्म कर दिया है. अब ज्यादातर आंदोलन एनजीओ चलाते हैं.

एनजीओ फंड से चलता है, जो या तो सरकार से मिलता है या उद्योगपति से. आंदोलन भी सरकार के खिलाफ होता है. आप जिस से फंड ले रहे हों, उसके विरोध में एक हद से ज्यादा उतर ही नहीं सकते.

दरअसल एनजीओ संस्कृति पूंजीवाद और पूंजीवादी सरकारों के संरक्षण के लिए ही विकसित की गई है.

इसे इस तरह समझिये कि किसी जमीन को सरकार ने किसी उद्योगपति को किसी काम के लिए आवंटित कर दिया, जिससे लोगों में गुस्सा है.

लोगों का गुस्सा सतह पर आये, इससे पहले ही वहां कोई एनजीओ प्रकट हो जायेगा. वह लोगों के उस गुस्से को आंदोलन की शक्ल दे देगा, फिर धीरे धीरे उस गुस्से को शांत कर देगा, और न सरकार का कुछ बिगड़ेगा, न उद्योगपति का. 

कभी कभी ऐसा भी होता है कि सरकार ने एक उद्योगपति को जमीन दे दी, तो दूसरे ने किसी एनजीओ को लगाकर आंदोलन करा दिया. बाद में जिसे जमीन मिली थी, उसने भी आंदोलनकारी एनजीओ को फंडिंग कर दी. और आंदोलन खत्म. 

जमीन का उदाहरण देकर जो बात कही गई है, उसे आप सभी मामलों में फिट कर लीजिये. किसानों, महिलाओं, पिछड़ों, अल्पसंख्यक, दलितों, बच्चों के नाम पर जो हो रहा है, उसका झोल आपकी समझ में आ जाएगा.

फैक्ट्री मालिक से फंड लेकर आप बाल मजदूर को किस तरह हक दिला पाएंगे, सोचकर देखिए. सच तो यह है कि फैक्ट्री मालिक से फंड लेकर आप बाल मजदूर के हक की बात इसलिए कर रहे हैं, ताकि कोई बच्चों को हक दिलाने सचमुच मैदान में न आ जाए. 

यहां बच्चों का उदाहरण दिया गया है. आप बच्चों की जगह महिलाओं को रख लीजिये, जिसे रखना चाहें रख लीजिये. 

आप सोच रहे होंगे कि इस पूरे धतकरम का कम्युनिज्म के नुकसान से क्या मतलब. है, सर इसका कम्युनिज्म से मतलब है. हम लोगों का काम कठिन हुआ है. लोग बहुत आसानी से भरोसा नहीं कर पाते.

तो पूंजीवाद का जो लंकेश है, एनजीओ संस्कृति उसी लंकेश का एक सिर है. जिसे पूंजीवादियों ने ही अपनी रक्षा के लिए बहुत करीने से खड़ा किया है. 

हाँ, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में काम कर रहे एनजीओ इस नियम का अपवाद हो सकते हैं.

कम्युनिस्ट आंदोलन का दूसरा नुकसान समाजवादियों ने किया. जाति भारतीय समाज व्यवस्था का अनिवार्य तत्व है. जाति और धर्म के आधार पर राजनीति करना भी बहुत आसान है. 

जिस देश में गरीब बनाम अमीर की राजनीति होनी चाहिए थी, उसमें इन्होंने जाति बनाम जाति की राजनीति की. इसलिए गरीब बनाम अमीर की राजनीति का आधार कमजोर पड़ा. गरीब बनाम अमीर की राजनीति केवल कम्युनिस्ट करते हैं. इसीलिए कम्युनिस्ट आंदोलन भी कमजोर पड़ा. क्या आपको पता है, कम्युनिस्ट पार्टियां उद्योगपतियों से चंदा नहीं लेतीं.

समाजवादियों ने एक तरफ गरीब अमीर की राजनीति नहीं होने दी, उसकी जमीन को कमजोर किया. दूसरी तरफ ज्यों ही मौका आया, फासीवादियों की पालकी लादकर खड़े हो गए. 

जार्ज फर्नांडीज जैसे खांटी समाजवादी ने कंधे दर्द करने के बावजूद भाजपा की पालकी ढोई. यूपी वाले नेताजी ने यही काम चुपके चुपके किया. सुशासन कुमार भी तो एक हद तक समाजवादी ही हैं, लेकिन देखो, कितनी मजबूती से पालकी ढो रहे हैं.

कम्युनिज्म की कमजोरी का तीसरा कारण खुद कम्युनिस्ट हैं. वह समय बहुत पहले आ चुका है, जब  सभी वामपंथी पार्टियों को एकजुट हो जाना चाहिए था, लेकिन नहीं हुईं. अब भी इस दिशा में कुछ खास हो नहीं रहा है.

यह सही है कि कम्युनिस्ट पार्टियों में साफ सुथरे लोग आने चाहिए, लेकिन इतना शुद्धतावाद भी ठीक नहीं कि 10-15 साल तक तो लोगों को कार्यकर्ता ही न बनाया जाए. अन्य पार्टियों में कार्यकर्ता बनने में दो मिनट नहीं लगते, यहां 10-12 साल भी कम पड़ जाते हैं. यह ठीक नहीं. 

यह पोस्ट एक मित्र के सवाल के जवाब में लिखी गई है. यह विषय ऐसा है, जिस पर किताब लिखी जा सकती है, इसलिए कम शब्दों में बात कहने की कोशिश के बावजूद पोस्ट लम्बी हो गई है. अगर पूरी पढ़ी है तो धन्यवाद. नहीं पढ़ी तो भी.

एनजीओ वाले और समाजवादी मित्र क्षमा करें, जो सच है, सो है.
लेखक : राजेन्द् चतुर्वेदी जी की वाल से साभार

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