गलवान घाटी के गुलाम रसूल गलवान :-
"चौबे जी गये थे छब्बे बनने और दूबे जी बन कर आ गये" यही हालत है आज भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की। गये थे बलुचिस्तान और पीओके कब्ज़ा करने और लद्दाख का "गलवान घाटी" पर चीन का कब्ज़ा करा बैठे।
अक्साई चिन के लिए संसद में जान देने का ऐलान करने वाले गृहमंत्री अमित शाह चीन द्वारा गलवान घाटी पर कब्ज़ा कर लिए जाने के बाद सन्नाटे में हैं। जाने वह कब गलवान घाटी के लिए जान देंगे ?
खैर छोड़िए इनको , यह बस संसद में मेजे थपथपाने और चुनावी रैली में तालियाँ बजवाने के लिए ऐसी घोषणाएँ करते हैं। इनका इतिहास जान देने का नहीं जान लेने का है।
आईए समझते हैं कि भारत के हाथ से जा चुकी "गलवान घाटी" है क्या ? उसका इतिहास क्या है ?
करीब 14000 फीट ऊँचाई और शून्य से नीचे और ठंढ में माईनस 20° तक तापमान वाली इस खूबसूरत घाटी का नाम लद्दाख के रहने वाले "गुलाम रसूल गलवान" के नाम पर है।
उनके बारे में तमाम कहानी किस्से हैं। काश्मीर में "गलवान" का अर्थ लुटेरा या डाकू समझा जाता है तो कुछ लोग उनको लुटेरा कहते हैं पर मेरे लेह में रहने वाले मित्र के अनुसार वह चरवाहा थे और उनके ही दिए कुछ फैक्ट्स है जिनके आधार पर जानते हैं कि कौन थे गुलाम रसूल जिनके नाम पर पड़ा घाटी का नाम "गलवान घाटी" पड़ा।
दरअसल यह जगह "अक्साई चिन" इलाके में आती है इसलिए चीन हमेशा यहां आंखें गड़ाये रहता है। साल 1962 से लेकर 1975 तक भारत- चीन के बीच जितने भी संघर्ष हुए उनमें रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण गलवान घाटी ही फोकस था । 1975 के बाद अब यह साल 2020 में फिर से सुर्खियों में है।
तथ्यों के अनुसार गुलाम का जन्म साल 1878 में हुआ। जब वह 14 साल के थे तभी घर से निकल गये। नई जगहों को खोजने के जुनून की वजह से वह अंग्रेजों के पसंदीदा गाइड बन गये।
1892 में चार्ल्स मरे वहां आए, तो गुलाम रसूल गलवान उनके साथ गाईड के तौर पर यात्रा पर निकले थे। तब उनकी उम्र मात्र 14 साल थी। इस यात्रा के दौरान उनका काफिला एक जगह भटक गया था जहाँ सिर्फ ऊंचे पहाड़ और खड़ी खाइयां थीं और उनके बीच से नदी बह रही थी।
किसी को समझ नहीं आ रहा था कि यहां से कैसे निकला जाए। तब 14 साल के गलवान ने एक आसान रास्ता ढूंढ निकाला, और वहां से काफिले को निकाल ले गए।
उसी दिन चार्ल्स मरे ने इस खूबसूरत घाटी का नाम "गलवान घाटी" रख दिया। फिर सन् 1899 में गुलाम रसूल गलवान ने लेह से ट्रैकिंग शुरू की थी। वह लद्दाख के आसपास गलवान घाटी और गलवान नदी समेत कई नए इलाकों तक पहुंच गये।
गुलाम रसूल गलवान बहुत पढ़े-लिखे नहीं थे। लेकिन वहां टूरिस्ट के तौर पर काम करते हुए गुलाम ने अंग्रेज टूरिस्टों से अग्रेजी में बात करना सीख लिया था। वह मशहूर ब्रिटिश एक्सप्लोरर "सर फ्रांसिस यंगहसबैंड" के साथ लंबे समय तक साथ रहे। उनके साधिन्य में रहकर उन्होनें अपनी कहानी को "सर्वेंट ऑफ साहिब्स" नाम की किताब में लिखा था।
https://books.google.co.in/books?id=BhdTqFwVUQ4C&printsec=frontcover&source=gbs_ge_summary_r&cad=0#v=onepage&q&f=false
यह किताब की गुलाम रसूल की टूटी-फूटी अंग्रेजी में उनके यात्रा वृत्तांतों को बताती है। गुलाम रसूल गलवान ने अपनी 35 साल की यात्राओं में अंग्रेजी, लद्दाखी, उर्दू, और तुर्की भाषाओं का इस्तेमाल करना सीख लिया था।बाद में वो लेह में ब्रिटिश कमिश्नर के मुख्य सहायक के पद तक भी पहुंचे।कई हस्तियों के साथ घूमते हुए गुलाम रसूल गलवान ने अपनी पूरी जिंदगी बिता दी और 1925 में उनकी मौत हो गयी।
लेह में एक चंस्पा योरतुंग सर्कुलर रोड है जहाँ पर आज भी गुलाम रसूल गलवान के पूर्वजों का घर है। यहीं पर रसूल गलवान के पोते अमीन गलवान अभी भी रहते हैं।
बाकी , चीन इस नाम को हड़प चुका है , और देश में चीनी सामान के बहिष्कार का नारा लग रहा है वह भी तब जबकि सरकार ऐसा कोई बयान नहीं दे रही है। वह चुप्पी साधे हुए है और उसके समर्थित संगठन देश में उपजे गुस्से को ठंडा करने के लिए ड्रामेबाजी चालू कर चुके हैं।
यह भी नहीं समझते कि एक 'अंतर्राष्ट्रीय ट्रिटी" भी होती है।
लेखक : मो जाहिद जी की वाल से प्रकाशित।
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