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Wednesday, 8 July 2020

क्या आप जानते है- जैन धर्म का त्रिरत्न

                                                              जैन धर्म का त्रिरत्न
जैन धर्म में सम्यक दर्शन,सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र असल में वैदिकों के भक्तियोग,ज्ञानयोग और कर्मयोग का ही परिवर्तित रूप है ।भेद यह है कि वैदिक धर्म में ज्ञान,कर्म और भक्ति में से कोई भी मार्ग मुक्ति के लिए यथेष्ट समझा जाता है,किंतु जैन धर्म मोक्ष-लाभ के लिए सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र तीनों को आवश्यक मानता है।।
त्रिरत्न में पहला स्थान सम्यक दर्शन का आता है,जिसके पालन के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य तीन प्रकार की मूढ़ताओं और आठ प्रकार के अहंकारों को बिल्कुल छोड़ दे।
अब बात आती है कि तीनों मूढ़ताओं की वे कौन-कौन है 
 1, लोक मूढ़ता 
 2, देव मूढ़ता 
 3,पाखंड मूढ़ता, 

नदियों में स्नान करने से स्वच्छता ही नहीं पुण्य भी बढ़ता है और  ऐसी अनेक भ्रांतियां लोक मूढ़ता के उदाहरण हैं जो त्याज्य हैं,

देवी देवताओं की शक्तियों में विश्वास करने वाला है देव मूढ़ता।

साधु और फकीरों की चमत्कार में विश्वास करने वाला पाखंड मूढ़ता, की सीमा में आता है।

जैन धर्म में यह सभी अंधविश्वास त्याज्य है जब तक ये सभी अंधविश्वास नहीं टूटते मनुष्य धर्म के सत्य मार्ग पर नहीं आ सकता।
भला यह कैसे संभव था कि जिस धर्म में अहिंसा पर इतना जोर डाला वह विनम्रता के गुणों को अनिवार्य नहीं समझे?
 इसलिए जैन धर्म में आठ प्रकार के अहंकार भी त्याज्य बताए गए है।
 1, अपनी बुद्धि का अहंकार 
 2, अपनी धार्मिकता का अहंकार 
 3, अपने वंश का अहंकार 
 4, अपनी जाति का अहंकार 
 5, अपनी शरीर या मनोबल का अहंकार 
 6, अपनी चमत्कार दिखाने वाली शक्तियों का अहंकार 
 7, अपने योग और तपस्या का अहंकार 
 8, अपने रूप और सौंदर्य का अहंकार 
इतनी तैयारी हो लेने पर ही सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र का फल साधक को मिल सकता है
बौद्ध धर्म की तरह जैन धर्म में भी कर्मवाद है और उसका उद्देश्य मनुष्य के कर्मों को परिष्कृत एवं उन्नत बनाना है ,
प्रत्येक जैन गृहस्थ को पंचामृत का प्रण लेना पड़ता है जिनमें अहिंसा 
सत्य 
अस्तेय 
ब्रह्मचर्य 
अपरिग्रह
आते हैं खेती बारी में जो जीव हिंसा अनिच्छिति ढंग से हो जाती है ,वह गृहस्थों को क्षम्य है ।इसी प्रकार ब्रम्हचर्य के मामले में भी पर स्त्री गमन ही वर्जित है ,और अपरिग्रह के द्वारा गृहस्थ को यह प्रतिज्ञा करनी पड़ती है कि वह अपनी आवश्यकता से अधिक संपत्ति अपने पास नहीं रखेगा। उसे दान में दे होगा।
शायद इसी व्रत का पालन करने के लिए आज भी जैन गृहस्थ अपनी आय का एक भाग दान के लिए उत्सर्ग कर देते हैं
गृहस्थों के लिए जो व्रत परिमित रखे गए हैं श्रमणों और सन्यासियों पर वे ही व्रत अत्यंत कठोरता से लागू किए जाते हैं, क्योंकि उन्हें छूट की आवश्यकता नहीं है तथा उन्हें प्राणपण से इन व्रतों के पूर्ण पालन करने का प्रयास करना चाहिए ।
इन समस्त तत्वों का विवेचन करने वाला साधक ही जैन सन्त जैन भिक्षुक कहलाता है ,
नियमों में जरा ढील प्राप्त करने वाला जैन संत ,जैन श्रावक कहलाता है।।

 आपका अपना
डॉ० सुनील बिझला

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