जब भी हम सुनते हैं कि कोई ईमानदार अधिकारी या कर्मचारी किसी नेता या अन्य कर्मचारियों के दबाव में आकर आत्महत्या कर लिया तो ऐसी खबरों पर हमारी पहली प्रतिक्रिया यही होती है कि अच्छा हुआ एक कमजोर इच्छाशक्ति का अच्छा आदमी दुनिया से चला गया वर्ना वो जीवन भर दुःखी रहता और रोता।
भाई जब टेंशन झेल पाने की क्षमता नहीं है और सरकारी नौकरी में पेंशन भी बंद हो गई है तो काहे लिए एक बेइमानी को समर्पित किसी जरूरतमंद बेरोजगार की सीट खा गए , कोई परचून की दुकान खोलकर उसको खूब इमानदारी से चलाना चाहिए था
बनना है डीएम कप्तान तहसीलदार दरोगा और जज और इमानदारी भी ढोनी है ऐसे नखलिस्तानी ख्यालात दिमाग में लाने से पहले प्रवेश पत्र पर साइनाइड धर के खा लेना चाहिए था
सिस्टम किसी एक डीएम कप्तान या कोतवाल के भरोसे नहीं चलता , इस सिस्टम में चपरासी भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि कमिश्नर और भ्रष्टाचार इस सिस्टम का ईंधन है , अब किसी एक पुर्जे को ईंधन मिलना यदि बंद हुआ तो समझिए कि पूरी मशीनरी खटपट करेगी नतीजा मशीन बंद करना ज्यादा मुश्किल है मानव को बंद करने की तुलना में , आप भ्रष्टाचार पसंद नहीं करते मत करो मगर अवरोध भी मत डालो
क्या लगता है कि वाकई में किसी वकील की फीस पचास लाख होती है , फीस नहीं होती है वो सिस्टम होता है जिसकी कीमत पचास लाख से शुरू होती है वर्ना कानून की किताब किसी पचास लाख फीस वाले एडवोकेट के लिए अलग से नहीं छपती और ना ही तहखाने में छपती है , जिला जज के मेज से मुश्किल से दो मीटर आगे बैठा क्लर्क दिन भर में पांच से दस हजार रूपए रिश्वत जज साहब के सामने लेता है मगर जज साहब को नहीं दिखता क्योंकि वो सिस्टम है
इसलिए कभी भ्रष्टाचार से डरकर आत्महत्या करने वाले किसी के लिए दुखी होना तो अच्छी बात है मगर उसको प्रोत्साहन देना ग़लत बात है।
देश दीपक मिश्रा जी की वाल से साभार।
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