कल मेरे पोस्ट लिखे जाने के बाद आसपास यही एक सवाल घूम रहा था कि अपराधी की जाति क्यों ढूंढ रहे हैं? इसपर गाली मिलीं सो अलग। पहली बात ये कि हमने अपराधी की नहीं बल्कि मीडिया और उसके पूरे वर्चस्ववादी ढांचे की जाति पर बात लिखी थी, दूसरी बात कि आज भी मेरा वही सवाल है, आप जी भर गाली दीजिए लेकिन बस इन दो सवालों का जबाव दे दीजिए-
1. दुबे की जगह मुसलमान होता तो क्या होता?
2. इतने बड़े मुद्दे पर कल किसी भी टीवी चैनल पर कोई डिबेट क्यों नहीं हुई.
अगर आज उत्तरप्रदेश में सपा सरकार होती और हत्यारे के सरनेम में यादव होता, क्या तब भी किसी चैनल पर कोई डिबेट नहीं चल रही होती? क्या तब भी कोई नेशन वांट्स टू नो नहीं होता?, क्या तब भी इसपर कोई डीएनए नहीं आता?
अगर देश के इतने बड़े मुद्दे पर कोई डिबेट ही नहीं हुई तो फिर मैं कहाँ गलत हुआ? फिर मेरा लिखा हुआ गलत कैसे हुआ?
मैं स्वयं कहता हूं कि अपराधी की कोई जाति या मजहब नहीं होता, लेकिन दबंगों की जातियां होती हैं, वर्चस्व की जातियां होती हैं, सम्पादकों की जातियां होती हैं, मालिकों की जातियां होती हैं। कल मैंने लिखा "दुर्भाग्य से हत्यारोपी दुबे निकल आया तो अब किसी टीवी पर कोई डिबेट नहीं चलनी। क्योंकि दुबे जी हत्यारोपी हैं, चौबे जी सम्पादक हैं, त्रिवेदी जी रिपोर्टर हैं, चतुर्वेदी जी मालिक हैं, पांडे जी कर्मचारी हैं, शर्मा जी मंत्री हैं, द्विवेदी जी विधायक हैं, शुक्ला जी कार्यकर्ता हैं, भागवत जी सरसंघचालक हैं. यही तो है "वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति"
तो इसमें क्या गलत था? आपको मेरे लिखे में जातिवाद दिखता है, उसमें नहीं दिखता कि पूरी मीडिया पर एक ही जाति का कब्जा क्यों है? आप जबाव दीजिए न कि कल देश के सबसे बड़े मुद्दे पर डिबेट क्यों नहीं हुई?
लेखक : श्याम मीरा सिंह
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