यही वक्त है। फिर जन्मो राम, उठाओ धनुष। सन्धान करो.. - National Adda

Breaking

Home Top Ad

Post Top Ad

Wednesday, 5 August 2020

यही वक्त है। फिर जन्मो राम, उठाओ धनुष। सन्धान करो..

पुरूष, उत्तम, मर्यादाबद्ध !!

मर्यादा पुरुषोत्तम राम.. !! दशरथ के पुत्र, उनकी दुआओं का फल, यज्ञ के फलों से उत्पन्न। कौन जानता है कि वह प्रभु के अवतार थे या नही। मगर मनुष्य जन्म लेकर, हाथ बढ़ाया और दैवत्व को छू लिया। मेरे प्रभु, इस जग में आकर प्रभु हुए मेरे। कब , कैसे??


कैसे तुम सुकुमार, उस नीली कोमल ग़ात पर तूणीर और धनुष लादे, बस साधारण अस्त्रों से ऋषिकुल के सम्वर्धन को बढ़ चले। कैसे पुरातन अस्त्रों से मार गिराया ताड़का को, कैसे हंसते हुए सन्धान किया ?? उस बीहड़ में, तो मनुज थे प्रभु, तब देव न थे। 

कि देव ही थे तब भी? क्या यही देखा विश्वमित्र ने तुममें प्रभु, सौंपा अपना दिव्यज्ञान, दिव्यास्त्र, अपना दिव्य मन्त्र? कैसे जन्माया इतना विश्वास, जो हजार बरस की तपस्या का फल सौंप गए तुम्हे। कैसी होगी वो मुस्कान तुम्हारी, वो धीर, वो गहराई। 

क्या जादू होगा वो, कि जो पतिता कहलाई, शिला बनी, उस जननिष्काषित अहिल्या को छूकर प्राण भरे। बस छूकर, प्रभु.. स्पर्श से !!! कैसे तोड़ा समाज का बंधन, और क्यो, उस अनजानी अहिल्या के लिए??? और कैसे तोड़ा अजगव तुमने, जो उठ न सका था रावण से भी। तुम तो मनुज थे, तब देव न थे। कि देव ही थे तब भी..

कैसे छोड़ दिया सब वैभव, पहन वल्कल निकल पड़े अयोध्या के प्रासाद से।यूं भला छोड़ देता है कोई, राज्य को, सुख को, सत्ता को.. जो सहज अधिकार था प्रभु का। वचन पिता का था, तुम्हारा नही मेरे राम। मगर हंसकर निकल पड़े, रथ में , पैदल, निषाद की नाव में... उस नाव में पदस्पर्श, वो गुह को गले लगाना। वो शबरी के जूठे बेर..!! क्या वो निम्नवर्ण न थे प्रभु??

प्रभु के कदम प्रभुता की ओर.. पल पल , बीहड़ जंगल मे, अपने राज्य की सीमाओं के पार, अकेले अरक्षित रहकर भी राजधर्म निभाया। चौदह साल, मृत पिता के वचन रक्षा के लिए!! मौका मिला था दोबारा, सारी अयोध्या आई मनुहार करने। मगर मनुष्य कहाँ रह गए थे राम। तुम देव हो रहे थे प्रभु, पल प्रतिपल..

चौदह साल, वानर, नाग , रीछ.. कितने ही वनवासी। जो अस्पृश्य थे, जो कुंठित थे, जो असम्मानित थे, जो असुरक्षित थे, जो सताए हुए थे, उनके लिए तुम खड़े हुए राम। मेरे प्रभु, कौन सी प्रेरणा थी। क्या साध्य था, क्या लीला थी। क्यो किया सबको संगठित, क्यो लिया सबको शरण मे??? क्या भविष्य में झांक लिया था? या वो बस प्रेम था, वह प्रेम जो ईश्वर को सबसे होता है।

गर पता था सब, तो क्यो जो खर दूषण को बैरी बना डाला। खेला, फिर दो बाजुओं में बांधकर मसल दिया। क्यो छेड़ा रावण के अहम को, क्यो छोड़ा घायल कर सूर्पनखा को..., मेरे राम, मेरे प्रभु। सब लीला थी, सब माया थी न तुम्हारी। सन्धान रावण का तय था। पर लीला रची, दौड़े मारीच के पीछे...

 और दौड़ गए लंका तक। सब लीला थी प्रभु, जो चुन चुन कर संहार किया। निर्दयी, आततायियों, अत्याचारियों, अहंकारियों और सत्ता के मद में चूर धनपशुओं का..। धूल में मिला दिया उनका वैभव और सर नीचा किया अभिमान का। 

और श्रेय दिया वानरों को, रीछों को, नागों को.. उन वनवासियों को प्रभु, आपने अपना देवत्व भी बांट दिया। वो दमकते चेहरे, वो जीत का आत्मविश्वास, वो सुरक्षा का अहसास, वो आप के होने क़ा भरोसा, उस अनगढ़ सेना ने विजय का वरण किया। आपको देखा, जब उन सबने, उल्लास से, श्रद्धा से भरे नैनो से.. देवत्व पूर्ण हुआ। प्रमाणित हुआ, जग ने सुनी आपकी कहानी, गाये, नाचे। सबने दीप जलाए..

दीप फिर जलेंगे प्रभु। आओ..आवाहन है, आर्तनाद है, अंतर्नाद है। आहत ये पावन धरती, फिर खर दूषण से दूषित है। धनपशु चर रहे हैं, अबला पर फिर वार है। सोने की लंका से अट्टहास गूंज रहा है। सिक्के बोल रहे हैं, न्याय बेबस है। मर्यादाएं टूट चुकी हैं, और टूट चुकी है आस.. 

पुत्र कामेष्टि यज्ञ की वेदि कहाँ थी?? कहां हुआ था जन्म, कहाँ कहां चरणों की धूल पड़ी, किस शिला पर तुम बैठे, किन झरनों का जल पिया, कहाँ पतितों  को गले लगाया, कहां दुष्टों का संहार किया.. यह हमे नही पता राम। हमे नही पता, मेरे प्रभु.. हमे यह पता है, कि समूची धरती तुम्हारी कर्मभूमि है, हर हृदय मे तुम्हारी जन्मभूमि है। यह पुण्य भूमि पदाक्रांत है। ये हृदय भयाक्रांत हैं। 

तो फिर से दिलो में जन्मों राम, भारत मे जन्मो। फिर लीला करो, प्रभु, माया रचो। यह आवाहन सुनो, अंतर्नाद सुनो, सुनो ये आर्तनाद .. हे नाथ। दिल डूब रहा है, तिमिर ने सूरज बनकर हमसे छल किया है। स्वर्णमृग की लालसा से फिर सत्य का हरण हुआ है। वही रावण है, वही मेघनाथ, फिर वही राक्षसी दल..। 

यही वक्त है। फिर जन्मो राम, उठाओ धनुष। सन्धान करो..

मनीष सिंह

No comments:

Post a Comment


Post Bottom Ad