यह अवध देश का झंडा है।
तमाम इतिहास का रंगमंच, उत्तर भारत का वो इलाका, जिसने देश को लीडरशिप दी। धार्मिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक। गंगा के मैदान में बसा यह देश दुनिया की सबसे घनी आबादी के इलाकों में है। समृद्धि की वजह से हर रूलर के लिए प्राइज कैच रहा, और कइयों की राजधानी भी।
"अवध देश" सुनना, विचित्र लगेगा। मगर मैंने अवध राज्य इसलिए नही लिखा, क्योकि वर्तमान व्यवस्था में स्टेट, देश का सबऑर्डिनेट होता हैं। जो उस वक्त अवध नही था। अवध तब एक सेपरेट सोवर्निटी थी। सेपरेट सोवर्निटी को आज के परिप्रेक्ष्य में देश कहते हैं। अलग निशान, अलग विधान, कुछ समझे ???
तो तमाम राजे महाराजे और वँशो के हाथ से होता हुआ यह देश, लखनऊ वाले नवाबों के हाथ पहुंचा। अंग्रेज आ धमके थे, और चोर दरवाजे से सत्ता में घुस रहे थे। राजा के इलाके से फौजी भरते थे, उन फौजियों से दूसरे इलाके जीतते थे। फौजियों को विदेश सेवा भत्ता मिलता। जैसे बंगाल देश मे लड़ने पर, पंजाब देश मे लड़ने पर आदि आदि।
एक स्पेशल फैसिलिटी भी थी। अवध देश के सिपाही को अवध नवाब का प्रोटेक्शन था। कम्पनी सरकार किसी फौजी का कोर्ट मार्शल और बर्खास्तगी अवध नवाब की सहमति बगैर नही कर सकती थी। यू समझिये कि अवध वाले सैनिक परमानेंट थे, एक्स्ट्रा पेड थे। बाकी ब्रिटिश फौजी डेली वेजेस वाले।
और 1856 में ब्रिटिश ने अवध को कब्जा कर लिया। यह विस्तार की, हड़प की नीति थी। और यह 1857 की सिपाही म्यूटिनी की सबसे बड़ी वजह थी। पहला, नवाब हटे, प्रोटेक्शन हटा, नॉकरी परमानेंट से डेली वेज की हो गयी। दूसरा- ब्रिटिश के दूसरे इलाके अब परदेश नही रहे, स्वदेश हो गए। बोले तो - विदेश भत्ता कैंसिल ..
यलगार हो!!!!!
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अवध देश स्वदेश हुआ, डलहौजी की हड़प नीति से। इस तरह हड़प, युध्द, खरीद, सबऑर्डिनेट स्टेट बनने की सहमति.. आदि आदि तौर तरीकों से ब्रिटिश साम्राज्य बना। अंग्रेजो ने नेपाल छोड़ दिया, अफगानिस्तान छोड़ दिया, भूटान, श्रीलंका, म्यांमार तिब्बत छोड़ दिया। 1947 का भारत ब्रिटीश टेरेट्रीज का उत्तराधिकारी था। जो उन्होंने रखा, भारत हुआ, न जो न रखा, या जाते जाते बांट गए, तो हमारे हिस्से की चीजें रिपब्लिक ऑफ इंडिया हुई।
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किस्सा युजुअल हिस्ट्री का नही है, जो अमूमन लिखता हूँ। दरअसल सुबह से सोच रहा हूँ, कि डलहौजी ने अगर अवध का एक्सेशन न किया होता, तो क्या होता। नेपाल की तरह एक अलग देश। उसका झमेला उंसके पास..
भारत का मुस्तकबिल उत्तर प्रदेश का गुलाम न होता। देश के दस प्रधानमंत्री देश के अलग अलग इलाकों से होते। अस्सी के करीब लोकसभा सीटों के साथ यह दिल्ली का द्वार न होता। मूर्खता के तुष्टीकरण की आवश्यकता न होती।
भारत के पैरों में जहालत, बेवकूफी, अकर्मण्यता, जातिवाद, गरीबी, अनप्रोडक्टिविटी, गालीबाजी, लड़कपन, लडंकापन, आत्मनाश, नफरत, दंगेबाजी और प्रतिगामी सोच का ये भारी सा हंडा नही बंधा होता। भारत मुम्बई होता, बंगलौर होता, चेन्नई होता, पुणे, कलकत्ता, रायपुर और चंडीगढ़ होता। भारत फैजाबाद, जौनपुर, मिर्जापुर, बहराइच, गोरखपुर, बनारस न होता।
न वैसा बनाने की कोशिश होती। पार्टियां उत्तरप्रदेश के बहुसंख्य कुंदमती छिछोरो की सोच को देश के बाकी हिस्सो में निर्यात न करती। गोबर की हांडी फोड़कर देशभर में फैलाने की जगह वह अपनी सीमाओं में सिमटी होती। न आज पाकिस्तान होता। न मन्दिर मस्जिद का जहर। सिर्फ यूपी होता, एक कोने सिमटा, कटता, लड़ता, मरता हुआ एक सूडान। सोचिये कितना अच्छा होता।
सारी गलती इस डलहौजी की है।
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टीप- आओ, यूपी के हिंदुओं, मुसलमानों। बाह्मणों, ठाकुरों, दलितों, बहुजनो, ऐसो, वैसों। लिखो गाली, तुम्हे यही आता है, शर्म मगर नही आती।
मनीष सिंह का पोस्ट।
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